- मेंदोला, संघवी की याचिका पर पूरे दिन चली बहस, फैसला सुरक्षित
परदेशीपुरा चौराहा के पास स्थित सुगनीदेवी कॉलेज परिसर की 100 करोड़ मूल्य की तीन एकड़ जमीन मामले में लोकायुक्त जांच को चुनौती देने से जुड़ी दो याचिकाओं पर गुरुवार को इंदौर हाईकोर्ट में पूरे दिन (प्रात: 10.40 से शाम 4.20 बजे तक) बहस चली। याचिकाकर्ताओं के वकीलों की दलीलों पर शिकायतकर्ता सुरेश सेठ ने कोर्ट के समक्ष एक नई मांग रख दी कि इस केस की जांच केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो (सीबीआई) से करवा ली जाए, क्योंकि लोकायुक्त पुलिस के पास भ्रष्टाचार से जुड़े ऐसे कई प्रकरण लंबित हैं, जिनकी जांच आठ-आठ वर्ष से चल रही है। सेठ ने यह भी कहा कि भ्रष्टाचार के मामले उठाने वाले व्यक्ति को हतोत्साहित करने के लिए ये याचिकाएं दायर की गई हैं। मामले में कोर्ट ने फैसला सुरक्षित रखा है।
विशेष न्यायाधीश एसके रघुवंशी ने 6 अप्रैल 2010 को लोकायुक्त पुलिस को मामले में जांच के आदेश दिए थे। नंदानगर साख संस्था के अध्यक्ष व विधायक रमेश मेंदोला और धनलक्ष्मी केमिकल्स इंडस्ट्रीज के भागीदार मनीष संघवी ने दो अलग-अलग याचिकाओं में इस आदेश को चुनौती दी थी। जस्टिस एसएल कोचर और जस्टिस शुभधा वाघमारे की युगलपीठ ने इन्हीं पर सुनवाई की। याचिकाओं में मूल शिकायतकर्ता सुरेश सेठ समेत लोकायुक्त, लोकायुक्त एसपी, पुलिस महानिरीक्षक को प्रतिवादी बनाया गया है। ज्ञात रहे मामले में 5 अगस्त को लोकायुक्त पुलिस ने मेंदोला व संघवी समेत 17 लोगों के खिलाफ भ्रष्टाचार का केस दर्ज किया है। तत्कालीन महापौर कैलाश विजयवर्गीय की भूमिका की जांच अभी जारी है। 21 सितंबर को विशेष न्यायालय में अंतिम जांच प्रतिवेदन पेश होगा।
284 पेज में 21 न्यायिक दृष्टांत
सेठ ने कोर्ट में 284 पेज का एक जवाब प्रस्तुत किया। इसमें सुप्रीम कोर्ट और विभिन्न हाईकोर्ट के 21 न्यायिक दृष्टांत पेश किए गए हैं। ये सभी दृष्टांत मेंदोला और संघवी की याचिकाओं के तर्कों को चुनौती देते हैं।
अपराध को खत्म तो नहीं किया जा सकता
बहस के दौरान हाईकोर्ट ने कहा कि अपराध तो हुआ है और केवल प्रक्रिया का हवाला देकर अपराध को खत्म तो नहीं किया जा सकता है। कोर्ट ने जीरो कायमी का हवाला देते हुए कहा सुप्रीम कोर्ट के आदेश के तहत कोई भी व्यक्ति थाने में जाकर एफआईआर दर्ज कर सकता है। पहले वह जीरो नंबर पर कायम होती है और बाद में जिस क्षेत्र से संबंध होती है, वहां उसे भेजा जा सकता है। इस केस में लोकायुक्त पुलिस ने एफआईआर दर्ज की है। अब उसे शिफ्ट किया जा सकता है, खत्म तो नहीं किया जा सकता।
मैं तो हर दर पर गया था,
किसी ने सुना ही नहीं
- सुगनीदेवी कॉलेज परिसर मामले में हाईकोर्ट के समक्ष सुरेश सेठ ने रखा तर्क
- मेंदोला और संघवी की वकीलों ने भी पूरी तैयारी के साथ रखा पक्ष
जमीन के इस मामले में मैंने तो हर दर पर शिकायत करके न्याय मांगा था, लेकिन किसी ने सुना ही नहीं। यहां तक कि मुख्यमंत्री तक के यहां से आज तक जवाब नहीं आया। वर्ष 2007 से मैं जिम्मेदार अफसरों और जनप्रतिनिधियों को पत्र लिख रहा हूं। सरकार से तीन वर्ष से लड़ रहा हूं। कहां जाऊं... क्या मैं गटर में चला जाऊं। जो वकील यहां पैरवी कर रहे हैं, वे बताएं कि जो जमीन का मालिक ही नहीं था, उसने जमीन कैसे बेच दी। ये लोग तभी हाईकोर्ट के सामने आए, जब इन्हें पता चल गया कि अब लोकायुक्त जांच से बच नहीं सकते। मुझे तो ऐसा लग रहा है, जैसे आजादी की लड़ाई चल रही हो। भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाने वाले व्यक्ति की आवाज दबाने की कोशिश हो रही है। ऐसा ही चलता रहा तो मेरे मरने के बाद तक इस मामले में कोई निर्णय नहीं होगा।
यह बात कांग्रेस नेता सुरेश सेठ ने गुरुवार को हाईकोर्ट में जस्टिस एसएल कोचर और जस्टिस शुभदा वाघमाले की युगलपीठ के समक्ष कही। वे परदेशीपुरा चौराहा के पास स्थित सुगनीदेवी कॉलेज परिसर की 100 करोड़ मूल्य की तीन एकड़ जमीन मामले में लोकायुक्त जांच को चुनौती देने से जुड़ी दो याचिकाओं पर जारी बहस में हिस्सा ले रहे थे। नंदानगर साख संस्था के अध्यक्ष व विधायक रमेश मेंदोला और धनलक्ष्मी केमिकल्स इंडस्ट्रीज के भागीदार मनीष संघवी ने ये याचिकाएं लगाई हैं। मेंदोला की ओर से वरिष्ठ एडवोकेट एके सेठी और एडवोकेट राहुल सेठी ने जबकि संघवी की ओर से वरिष्ठ एडवोकेट रमेश आर्या और एडवोकेट अमित अग्रवाल ने पैरवी की। लोकायुक्त की ओर से वरिष्ठ एडवोकेट एलएन सोनी ने पक्ष रखा।
एडवोकेट देसाई को बनाया एमिकस क्यूरी
बहस के दौरान ही कोर्ट ने वरिष्ठ अधिवक्ता गिरीश देसाई को एमिकस क्यूरी (केस में कोर्ट के सलाहकार) घोषित किया। कोर्ट ने करीब एक घंटे तक उनसे विभिन्न पहलूओं पर विमर्श किया।
खचाखचा भरी रही कोर्ट
उद्योग मंत्री कैलाश विजयवर्गीय और विधायक रमेश मेंदोला के कारण बहुचर्चित हुए इस मामले को सुनने के लिए हाईकोर्ट के रूम नंबर 09 में पूरे दिन वकीलों की भीड़ जुटी रही। कई वरिष्ठ से लेकर कनिष्ठ एडवोकेट्स तक बहस को सुनने के लिए मौजूद थे। लोकायुक्त जांच की सीमाएं, विशेष न्यायाधीश के आदेश और भ्रष्टाचार से जुड़े मसलों पर जांच एजेंसियों के लिए तय मापदंडों से जुड़े विभिन्न कानूनी पहलू बहस के दौरान उजागर भी हुए।
टीआई से सीएम तक की सेठ ने शिकायत
17 मई 2007 : इंदौर निगमायुक्त
1 मई 2008 : इंदौर निगमायुक्त
6 अक्टूबर 2008 : इंदौर निगमायुक्त
12 फरवरी 2009 : इंदौर निगमायुक्त
27 फरवरी 2009 : आर्थिक अपराध अनुसंधान ब्यूरो (ईओडब्ल्यू)
2 मार्च 2009 : मुख्य सचिव मप्र, गृह सचिव, आईजी पुलिस, आईजी ईओडब्ल्यू, डीआईजी इंदौर, एसपी इंदौर, कलेक्टर इंदौर, एसपी ईओडब्ल्यू और टीआई परदेशीपुरा।
17 जून 2009 : मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान
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कोर्ट में कानूनी तर्कों की नींव
विधायक रमेश मेंदोला की याचिका के आधार
1. दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 153(3) की शक्तियों का उपयोग मजिस्ट्रेट कर सकता है, विशेष न्यायाधीश नहीं।
2. विशेष न्यायाधीश मप्र विशेष पुलिस स्थापना (एसपीई) कानून 1947 एवं मप्र लोकायुक्त कानून के अधीन है। वह भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम 1947, भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम 1988 के तहत मजिस्ट्रेट नहीं है।
3. विशेष न्यायाधीश द्वारा सीआरपीसी की धारा 190 के तहत कार्रवाई नहीं की।
4. मप्र विशेष पुलिस स्थापना कानून की धारा 4 के तहत कोई भी अनुसंधान कार्य पर सुपरइनटेंडेंस लोकायुक्त की रहती है, न्यायालय हस्तक्षेप नहीं कर सकता।
5. शिकायतकर्ता ने कभी भी लोकायुक्त अथवा एसपीई लेाकायुक्त को शिकायत दर्ज नहीं करवाई, इसलिए विशेष न्यायाधीश द्वारा धारा 153(3) के तहत जांच के आदेश देना त्रूटिपूर्ण है।
6. विशेष न्यायाधीश ने सीआरपीसी की धारा 200 के तहत निजी फौजदारी परिवाद के तहत परिवादी के बयान दर्ज नहीं किए और न ही धारा 202 के तहत कोई कार्रवाई की।
7. आरोपी की सुनवाई का अवसर दिए बगैर सीआरपीसी की धारा 153(3) के तहत जांच का आदेश नहीं दिया जा सकता।
8. सीआरपीसी की धारा 153(3) के तहत आदेश पुलिस स्टेशन के ऑफिसर इंनचार्ज को ही दिया जा सकता है। एसपीई लोकायुक्त इंदौर इस श्रेणी में नहीं आते।
9. सीआरपीसी की धारा 153(3) की शक्तियों का उपयोग तभी किया जा सकता है, जबकि संबंधित मामले में एफआईआर दर्ज करने से इंकार कर दिया गया हो।
10. विशेष न्यायाधीश का आदेश मप्र विशेष पुलिस स्थापना कानून के प्रावधानों के विपरीत है, क्योंकि इस अधिनियम में राज्य सरकार की पूर्व अनुमति जरूरी है।
मनीष संघवी की याचिका के आधार
1. याचिकाकर्ता लोक सेवक नहीं है, इसलिए सीआरपीसी की धारा 153(3) के तहत एसपीई लोकायुक्त को जांच का आदेश नहीं दिया जा सकता।
2. मप्र लोकायुक्त और उपलोकायुक्त नियम 1981 की धारा 8 (सी) के तहत पांच वर्ष से पुराने मामलों पर जांच का प्रतिबंध लगाया गया है।
3. विशेष न्यायाधीश ने सीआरपीसी की धारा 153(3) के तहत याचिकाकर्ता को सुनवाई का कोई अवसर नहीं दिया।
4. विशेष न्यायाधीश का आदेश मप्र लोकायुक्त एवं उपलोकायुक्त अधिनियम 1981 की धारा 7 के प्रावधानों का उल्लंघन है।
सुरेश सेठ के जवाब
1. तत्कालीन एमआईसी सदस्य रमेश मेंदोला ने महापौर कैलाश विजयवर्गीय की मौन सहमति के साथ पद का दुरुपयोग करते हुए धनलक्ष्मी केमिकल्स इंडस्ट्रीज के भागीदार मनीष संघवी व विजय कोठारी से आपराधिक षडय़ंत्र रचकर सरकारी जमीन की खरीदी-बिक्री की। इससे निगम और सरकार को करोड़ों की राजस्व हानि हुई।
2. वर्तमान में पुलिस अनुसंधान जारी है, इसलिए दोनों याचिकाएं अपरिपक्व हैं।
3. भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम की धारा 13 (1) (ई) के तहत एसपी स्तर के अधिकारी को जांच का आदेश देने का अधिकार है।
4. भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम के तहत विशेष न्यायाधीश को संज्ञान लेने का पूर्ण अधिकार है और इससे सेशन न्यायालय के साथ मजिस्ट्रेट की शक्तियों का समावेश हो गया है।
5. सीआरपीसी की धारा 153 (3) के तहत जांच के आदेश जारी करने से पहले अभियुक्त को सुनवाई को अवसर देने का कोई वैधानिक प्रावधान नहीं है।
पत्रिका : २० अगस्त २०१०
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