शुक्रवार, 3 सितंबर 2010

संकट में मालवा-निमाड़ के 66 पेड़-पौधे

 कलिहारी
गरुडफ़ल
केल सागौन
कुंवारिन
सोनपाठा
- बचाया नहीं गया तो बिगड़ जाएगा परिस्थिति तंत्र
- इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंसरवेशन ऑफ नेचर ने चेताया






जंगलों में नैसर्गिक तरीके से पनपने वाले जिन पेड़, पौधों, लता, घास, जडिय़ों से मनुष्य और पशु-पक्षियों का जीवनचक्र बगैर रोकटोक के चलता है, वे खतरे में हैं। मालवा-निमाड़ में ही 66 किस्में ऐसी हैं, जिन्हें सुरक्षित रखने के लिए अंतरराष्टï्रीय संगठन आईयूसीएन ने चेतावनी जारी की है। संगठन का कहना है इन्हें बचाने की हरसंभव कोशिश की जाए, ताकि परिस्थिति तंत्र सुरक्षित रहे। पौध पर्यावरण बचाने में जुटे लोगों की नजर में यह एक गंभीर किस्म का संकट है। राहत इस बात की है कि मालवा-निमाड़ में काम करने वाले वन विभाग ने संकटग्रस्त प्रजातियों को बचाने के लिए कोशिश शुरू कर दी है। 

इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंसरवेशन ऑफ नेचर (आईयूसीएन) के मुताबिक कुछ प्रजातियां ऐसी हैं जिनपर अब भी ध्यान दे दिया जाए तो वे बच सकती हैं। आईयूसीएन ने देशभर के सभी राज्यों की अलग-अलग सूचियां तैयार की हैं। मालवा-निमाड़ की सूची के बारे में इंदौर डिवीजन के मुख्य वन संरक्षण पीसी दुबे बताते हैं आईयूसीएन की रिपोर्ट को देखकर ही प्रजातियों को बचाने में लगे हैं। इंदौर के नवरतन बाग स्थित नर्सरी में अमरकंटक, सतना, चित्रकूट, रीवा, कठ्ठिवाड़ा के साथ ही धार-झाबुआ के जंगलों से भी बीज जुटाए हैं। पौधे विकसित हो रहे हैं, इन्हें जंगलों और घरों में लगाया जाएगा। होलकर साइंस कॉलेज के बॉटनी विभागाध्यक्ष डॉ. अरुण खेर कहते हैं जनसंख्या विस्फोट, खेती में बदलाव, खनन, पर्यटन जैसे कारणों के कारण पौधे संकट में आए हैं। केवल पौधे रोपना इसका उपचार नहीं होगा। जागरूकता से ही बचाव संभव है। 

गधापलाश से बंदरलड्डू तक खतरे में
गधापलाश, केल सागौन, मरकाड़ा, मजिष्ठा, खरसिंगा और मोखा ऐसी छह प्रजातियां हैं, जिन्हें बचाना सबसे जरूरी है। दहीमन, सोनपाठा, गरुडफ़ल, कुंवारिन, कलिहारी, खापरीकंद, गलगल, वनसन, कुवारिन, रेडागेड़ी, पर्पट, दूध गोला, घुंघची, विधारा, रजबेला, वन मक्का, सलई, चारोली, तिलपपड़ा, बंदरलड्डू, खमेर, धमन, दूधापान, जंगली केमांच, वृद्धदारू आदि भी संकटग्रस्त हैं।

जज, कमिश्नर, कलेक्टर, आईजी के बंगलों का भरोसा
वन विभाग ने विलुप्त होती प्रजातियों को संरक्षित करने के लिए हाईकोर्ट जजों, कलेक्टर, कमिश्नर, आईजी, एसएसपी जैसे बड़े अधिकारियों के बंगलों पर भरोसा किया है। विभाग का मानना है कि इन बंगलों के बगीचे सर्वाधिक सुरक्षित रहते हैं, इसलिए प्रजातियों को वहां बोया जा रहा है।


इन जिलों में
इंदौर, धार, झाबुआ, रतलाम, खरगोन, बड़वानी, उज्जैन, अलीराजपुरï।

इतने क्षेत्र में
भौतिक क्षेत्र - 30 हजार 201 वर्ग किमी
जंगल क्षेत्र- 7 हजार 178 वर्ग किमी
रिजर्व फॉरेस्ट- 5 हजार 712 वर्ग किमी

स्थिति                संख्या
पूरी तरह विलुप्त            01
विलुप्त प्राय:                 06       
नाजुक दौर में             13
अतिसंवेदनशील          46 
कुल                          66


पेड़ से झाड़ी तक पर असर
किस्म        संख्या
पेड़                 30
जड़ी/औषधि    18
लता/बेल        13
झाड़ी             03
अन्य             02
कुल               66

खतरे के पांच प्रमुख कारण
- प्रजाति के महत्व का अज्ञान।
- वनों में पर्यटन को बढ़ावा।
- शहरीकरण और अंधाधुंध विकास।
- प्राचीन घास स्थलों पर पशुचारण।
- पारंपरिक खेती में बदलाव। 




'सागवान, पलाश और दूसरे पेड़ों को बचाने में हमारे विभाग के लोग यह भूल ही गए कि दूसरी वनस्पितियां भी बेहद अहम होती है। देखते ही देखते जंगलों में बहुतायात में मिलने वाली वनस्पितियां समाप्त होने की कगार पर पहुंच गई हैं। इन्हें बचाने के लिए जमीनी स्तर पर काम चल रहा है।
- पीसी दुबे, मुख्य वन संरक्षक, इंदौर डिवीजन

'जंगलों को देखने का नजरिया बदले बगैर सुधार संभव नहीं है। पर्यावरण में बढ़ रही कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा के कारण सबकुछ डांवाडोल हो रहा है। पौधों पर संकट आएगा, तो उन पर पलने वाली तितलियां, मधुमख्यिां, चिडिय़ाएं भी घटेंगी। इससे परागकणों का यातायात बंद हो जाएगा और खाद्य संकट के हालात बनेंगे।Ó
- डॉ. अरुण खेर, विभागाध्यक्ष, बॉटनी, होलकर साइंस कॉलेज

पत्रिका: ०२ सितम्बर २०१० 

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