- सुगनीदेवी केस की जांच प्रक्रिया को सही ठहराया
- मनीष संघवी, रमेश ने दी थी विशेष न्यायाधीश के आदेश को चुनौती
परदेशीपुरा चौराहा के पास स्थित सुगनीदेवी कॉलेज परिसर की 100 करोड़ मूल्य की तीन एकड़ जमीन मामले में लोकायुक्त जांच को चुनौती देने से जुड़ी दो याचिकाओं को मध्यप्रदेश हाईकोर्ट ने सोमवार को खारिज कर दिया। नंदानगर साख संस्था अध्यक्ष रमेश मेंदोला और धनलक्ष्मी केमिकल्स संचालक मनीष संघवी ने ये याचिकाएं दायर की थीं। हाईकोर्ट ने विशेष न्यायाधीश के उस कदम को न्यायिक तौर पर सही माना जिसमें कांग्रेस नेता सुरेश सेठ की शिकायत पर लोकायुक्त पुलिस को जांच के आदेश दिए गए थे।
इंदौर बैंच के जस्टिस एसएल कोचर और शुभदा वाघमारे की युगलपीठ ने दोनों याचिकाएं खारिज करते हुए टिप्पणी की है विशेष न्यायाधीश को दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 153(3) की शक्तियों का इस्तेमाल करने का पूर्ण अधिकार प्राप्त है और इसी के आधार पर जांच शुरू की गई है। कोर्ट उन सभी न्यायिक दृष्टांतों का भी खारिज कर दिया जिनके आधार पर विशेष न्यायाधीश की शक्तियों को कटघरे में खड़ा किया गया था। मेंदोला के पैरवीकर्ता वरिष्ठ अधिवक्ता एके सेठी और राहुल सेठी ने फैसले की पुष्टि की है। संघवी की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता रोहित आर्या और अमित अग्रवाल ने जबकि लोकायुक्त की ओर से अतिरिक्त महाधिवक्ता एलएन सोनी ने पैरवी की थी।
एमिकस क्यूरी की अहम रिपोर्ट
इस केस में कोर्ट ने वरिष्ठ अधिवक्ता गिरीश देसाई को एमिकस क्यूरी (केस में कोर्ट के सलाहकार) घोषित किया था। उनकी रिपोर्ट में निचली अदालत की कार्रवाई को सही ठहराया गया था।
उठी थी सीबीआई जांच की मांग
केस पर 19 अगस्त को अंतिम बहस हुई थी। तब सुरेश सेठ ने तर्क दिया था कि लोकायुक्त पुलिस की जांच प्रक्रिया बेहद धीमी है इसलिए जांच का कार्य सीबीआई को सौंप दी जाए। सुनवाई के दौरान ही हाईकोर्ट ने टिप्पणी की थी कि अपराध तो हुआ है और केवल प्रक्रिया का हवाला देकर अपराध को खत्म तो नहीं किया जा सकता है। कोर्ट ने जीरो कायमी जिक्र करते हुए कहा था सुप्रीम कोर्ट के आदेश के तहत कोई भी व्यक्ति थाने में जाकर एफआईआर दर्ज कर सकता है। पहले वह जीरो नंबर पर कायम होती है और बाद में जिस क्षेत्र से संबंध होती है, वहां उसे भेजा जा सकता है। इस केस में लोकायुक्त पुलिस ने एफआईआर दर्ज की है। अब उसे शिफ्ट किया जा सकता है, खत्म तो नहीं किया जा सकता।
मेंदोला-संघवी समेत 17 आरोपी
लोकायुक्त पुलिस ने 5 अगस्त को मेंदोला और संघवी समेत 17 लोगों के खिलाफ भ्रष्टाचार और आपराधिक षडयंत्र का केस दर्ज किया है। इसकी अगली पड़ताल सोमवार को ही विधिवत शुरू हुई। शिकायतकर्ता सुरेश सेठ ने लोकायुक्त पुलिस को मय दस्तावेज बयाद दिए हैं। सभी 17 पर आरोप है कि इन्होंने षडय़ंत्र करके निगम से लीज पर ली गई जमीन को धनलक्ष्मी केमिकल्स से नंदानगर साख संस्था को बिकवाया और इससे शासन को करीब पौने तीन करोड़ के राजस्व की चपत लगी।
कल विशेष अदालत में सुनवाई
सुगनीदेवी केस में 6 अक्टूबर को विशेष न्यायालय में सुनवाई होना है। पिछली सुनवाई में लोकायुक्त पुलिस को अंतिम जांच रिपोर्ट पेश करना थी, किंतु उसने तर्क दिया कि हमारे लिए जांच की समय सीमा तय नहीं की जा सकी है। सेठ की आपत्ति पर अब इस पर बहस होना है। ज्ञात रहे मूल शिकायत के आरोपी क्रमांक दो (तत्कालीन महापौर कैलाश विजयवर्गीय) को लेकर अब तक लोकायुक्त पुलिस ने कोई टिप्पणी नहीं की है।
मेंदोला-संघवी के सारे तर्क नामंजूर
- सुप्रीम कोर्ट के न्यायिक दृष्टांतों का आधार लेना गलत
- सुगनीदेवी केस पर हाईकोर्ट में खारिज हुई याचिकाएं
सुगनीदेवी कॉलेज परिसर की 100 करोड़ मूल्य की तीन एकड़ जमीन मामले में विशेष न्यायाधीश द्वारा लोकायुक्त पुलिस को जांच के आदेश देने को चुनौती देने के लिए लगाई याचिकाओं के तर्कों को हाईकोर्ट ने सिरे से खारिज कर दिया। याचिकाकर्ताओं रमेश मेंदोला और मनीष संघवी की ओर से सुप्रीम कोर्ट के जिन न्यायिक दृष्टांतों का हवाला दिया गया था, हाईकोर्ट ने उन्हें इस केस से संबद्ध नहीं माना।
मेंदोला व संघवी की ओर से कई न्यायिक दृष्टांत दिए गए थे, किंतु कोर्ट ने उन्हें वाजिब नहीं माना। उधर, सुरेश सेठ ने 284 पेज का एक जवाब पेश किया था। उनके जवाब में सुप्रीम कोर्ट और विभिन्न हाईकोर्ट के 21 न्यायिक दृष्टांत थे। ये सभी दृष्टांत मेंदोला और संघवी की याचिकाओं के तर्कों को चुनौती देते थे। कोर्ट द्वारा मेंदोला-संघवी की याचिकाएं खारिज करने से साफ है कि सेठ के तर्कों से कोर्ट सहमत हुई।
विधायक रमेश मेंदोला की याचिका के आधार
1. दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 153(3) की शक्तियों का उपयोग मजिस्ट्रेट कर सकता है, विशेष न्यायाधीश नहीं।
2. विशेष न्यायाधीश मप्र विशेष पुलिस स्थापना (एसपीई) कानून 1947 एवं मप्र लोकायुक्त कानून के अधीन है। वह भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम 1947, भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम 1988 के तहत मजिस्ट्रेट नहीं है।
3. विशेष न्यायाधीश द्वारा सीआरपीसी की धारा 190 के तहत कार्रवाई नहीं की।
4. मप्र विशेष पुलिस स्थापना कानून की धारा 4 के तहत कोई भी अनुसंधान कार्य पर सुपरइनटेंडेंस लोकायुक्त की रहती है, न्यायालय हस्तक्षेप नहीं कर सकता।
5. शिकायतकर्ता ने कभी भी लोकायुक्त अथवा एसपीई लेाकायुक्त को शिकायत दर्ज नहीं करवाई, इसलिए विशेष न्यायाधीश द्वारा धारा 153(3) के तहत जांच के आदेश देना त्रूटिपूर्ण है।
6. विशेष न्यायाधीश ने सीआरपीसी की धारा 200 के तहत निजी फौजदारी परिवाद के तहत परिवादी के बयान दर्ज नहीं किए और न ही धारा 202 के तहत कोई कार्रवाई की।
7. आरोपी की सुनवाई का अवसर दिए बगैर सीआरपीसी की धारा 153(3) के तहत जांच का आदेश नहीं दिया जा सकता।
8. सीआरपीसी की धारा 153(3) के तहत आदेश पुलिस स्टेशन के ऑफिसर इंनचार्ज को ही दिया जा सकता है। एसपीई लोकायुक्त इंदौर इस श्रेणी में नहीं आते।
9. सीआरपीसी की धारा 153(3) की शक्तियों का उपयोग तभी किया जा सकता है, जबकि संबंधित मामले में एफआईआर दर्ज करने से इंकार कर दिया गया हो।
10. विशेष न्यायाधीश का आदेश मप्र विशेष पुलिस स्थापना कानून के प्रावधानों के विपरीत है, क्योंकि इस अधिनियम में रा'य सरकार की पूर्व अनुमति जरूरी है।
मनीष संघवी की याचिका के आधार
1. याचिकाकर्ता लोक सेवक नहीं है, इसलिए सीआरपीसी की धारा 153(3) के तहत एसपीई लोकायुक्त को जांच का आदेश नहीं दिया जा सकता।
2. मप्र लोकायुक्त और उपलोकायुक्त नियम 1981 की धारा 8 (सी) के तहत पांच वर्ष से पुराने मामलों पर जांच का प्रतिबंध लगाया गया है।
3. विशेष न्यायाधीश ने सीआरपीसी की धारा 153(3) के तहत याचिकाकर्ता को सुनवाई का कोई अवसर नहीं दिया।
4. विशेष न्यायाधीश का आदेश मप्र लोकायुक्त एवं उपलोकायुक्त अधिनियम 1981 की धारा 7 के प्रावधानों का उल्लंघन है।
सुरेश सेठ के जवाब
1. तत्कालीन एमआईसी सदस्य रमेश मेंदोला ने महापौर कैलाश विजयवर्गीय की मौन सहमति के साथ पद का दुरुपयोग करते हुए धनलक्ष्मी केमिकल्स इंडस्ट्रीज के भागीदार मनीष संघवी व विजय कोठारी से आपराधिक षडय़ंत्र रचकर सरकारी जमीन की खरीदी-बिक्री की। इससे निगम और सरकार को करोड़ों की राजस्व हानि हुई।
2. वर्तमान में पुलिस अनुसंधान जारी है, इसलिए दोनों याचिकाएं अपरिपक्व हैं।
3. भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम की धारा 13 (1) (ई) के तहत एसपी स्तर के अधिकारी को जांच का आदेश देने का अधिकार है।
4. भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम के तहत विशेष न्यायाधीश को संज्ञान लेने का पूर्ण अधिकार है और इससे सेशन न्यायालय के साथ मजिस्ट्रेट की शक्तियों का समावेश हो गया है।
5. सीआरपीसी की धारा 153 (3) के तहत जांच के आदेश जारी करने से पहले अभियुक्त को सुनवाई को अवसर देने का कोई वैधानिक प्रावधान नहीं है।
पत्रिका : ०५ अक्टूबर २०१०